आज इस आर्टिकल में एरिक्सन का मनोसामाजिक विकास का सिद्धांत (ericcson ka manosamajik vikas ka siddhant) के बारे में विस्तार से बात करेंगे।
एरिक्सन का जीवन कठिनाइयों से भरा रहा और इससे सबक लेकर उन्होंने मनोसामाजिक विकास का सिद्धांत दिया।
प्रवर्तक – इरिक इरिक्सन / एरिक्सन (Erik Erikson)
इरिक्सन ने अपनी प्रसिद्ध कृति “चाइल्ड हुड एण्ड सोसायटी- 1963” में यह स्पष्ट किया है कि मनुष्य केवल से जैविक और मानसिक प्राणी ही नहीं है, बल्कि वह एक सामाजिक प्राणी भी है। इरिक्सन ने इस सिद्धांत में पूरे जीवन अवधि (Life Spans) को 8 विभिन्न अवस्थाओं में बांटा है।
एरिक एरिक्सन के मनोसामाजिक विकास सिद्धांत को जीवन विस्तार सिद्धांत / Life Span Theory / अनन्यता की खोज / Identity / पहचान का संकट / Identity Crisis आदि नामों से भी जाना जाता है।
Trick :- विश्वास और स्वतंत्रता के साथ पहल की ;फिर परिक्षम करके पहचान बनाई ; तब उसकी घनिष्ठता मिली और जनन संपूर्ण हुआ |
S.N. | मनो सामाजिक विकास सिद्धान्त की अवस्था | आयु |
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1 | विश्वास बनाम् अविश्वास (Trust vs Mistrust) | 0 – 1 वर्ष |
2 | स्वतंत्रता बनाम् लज्जाशीलता(Autonomy vs Shame) | 2-3 वर्ष |
3 | पहल शक्ति बनाम् दोषिता(Initiative vs Guilt) | 4-6 वर्ष |
4 | परिश्रम बनाम हीनता (Industry vs Inferiority) | 7-12 वर्ष |
5 | पहचान बनाम् भूमिका भ्रान्ति(Identity vs Role confusion) | 13 -19 वर्ष |
6 | घनिष्ठता बनाम् अलगाव (Intimacy vs Isolation) | 20 – 30 वर्ष |
7 | जननात्मकता बनाम् स्थिरता(Generativity vs Stagnation) | 30 – 65 वर्ष |
8 | संपूर्णता बनाम् नैराश्य(Ego Integrity vs Despair) | 65 वर्ष के बाद |
1. विश्वास बनाम् अविश्वास (Trust vs Mistrust)
शैशवावस्था – बच्चों को अपने माता-पिता को देखकर उचित स्नेह व प्रेम मिलता है, जो उनमें विश्वास (Trust) का भाव विकसित करता है तथा जब माता-पिता बच्चों को रोते-बिलखते व चिल्लाते छोड़ जाते हैं, तो उनमें अविश्वास (Mistrust) की भावना विकसित हो जाती है।
2. स्वतंत्रता बनाम् लज्जाशीलता (Autonomy vs Shame )
प्रारम्भिक बाल्यावस्था (2 से 3 वर्ष) – इस अवस्था में बालक अपने आप भोजन करना, कपड़े पहनना इत्यादि पर दूसरों पर निर्भर रहना नहीं चाहते। वह स्वतंत्र रूप से कार्य करना चाहते हैं। दूसरी तरफ बहुत सख्त माता-पिता बच्चों को साधारण कार्य करने पर भी द्वार डाँटते हैं तथा उनकी क्षमता पर शक करते हैं, जिसके कारण बच्चे अपने अंदर लज्जा अनुभव करते हैं।
3.पहल शक्ति बनाम् दोषित (Initiative vs Guilt)
(4 से 6 वर्ष) – यह बच्चों का प्राक् स्कूली वर्ष (Preschool Years) होता है तथा ये अवधि बालक की पूर्व/आरम्भिक बाल्यावस्था की होती है। माता-पिता बच्चों को जिंदगी के सभी क्षेत्रों में नये-नये खोज करने की प्रेरणा देते हैं, तो इसे पहल की संज्ञा देते हैं और जब माता-पिता पहल करने पर उनकी आलोचना / दण्ड देते हैं, तो बच्चों में दोष भाव उत्पन्न हो जाता है।
4.परिश्रम बनाम हीनता (Industry vs Inferiority)
(6 से 12 वर्ष) – इस अवधि को उत्तरबाल्यावस्था भी कहा जाता है। जब बच्चों को पहल से उत्पन्न नई अनुभूतियाँ मिलती है। तब वह अपनी ऊर्जा को नये ज्ञान अर्जित करने में लगाते हैं, इसे परिश्रम की संज्ञा दी गई है। लेकिन जब स्कूल में आने वाली चुनौतियों से असफलता मिलती है, तब बालक में हीनता का भाव उत्पन्न होता है।
5.अहं पहचान बनाम् भूमिका संभ्रान्ति (Identity vs Role confusion)
(13 से 19 वर्ष) – यह किशोरावस्था की अवस्था होती है। इस अवस्था में किशोरों में यह जानने की प्राथमिकता होती है कि वह कौन है, किसलिए है, और अपने जीवन में कहाँ जा रहे हैं? इसे पहचान की संज्ञा दी है तथा जब बालक भविष्य का रास्ता सुनिश्चित नहीं कर पाते, तब संभ्रांति की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।
6. घनिष्ठता बनाम् अलगाव (Intimacy vs Isolation)
(20 से 35 वर्ष) – यह आरम्भिक वयस्क अवस्था / युवावस्था की अवस्था होती है। इस अवस्था में व्यक्ति दूसरों के साथ धनात्मक संबंध (Positive Relation) बनाता है। जब व्यक्ति वे दूसरों के साथ घनिष्ठता का भाव विकसित होता है, तो वह दूसरों के लिए अपने आपको समर्पित कर लेता है और जब दूसरों के साथ घनिष्ठता विकसित नहीं कर पाते हैं, तो वे सामाजिक रूप से अलग (Socially Isolated) हो जाते हैं अर्थात् इस अवस्था में घनिष्ठता बनाम अलगाव का संघर्ष होता है।
7. जननात्मकता बनाम् स्थिरता (Generativity vs Stagnation)
(30 से 65 वर्ष) – यह अवस्था मध्यवयस्कावस्था (Middle Adulthood) भी कहलाती है। इस अवस्था में व्यक्ति अगली पीढ़ी के लोगों के कल्याण तथा उस समाज के लिए जननात्मक में उत्पादकता सम्मिलित करता है, लेकिन जब व्यक्ति को जननात्मकता की चिंता उत्पन्न नहीं होती, तो उसमें स्थिरता उत्पन्न हो जाती है।
8. संपूर्णता बनाम् नैराश्य (Ego Integrity vs Despair)
(65 वर्ष के बाद) – इस अवस्था में 65 वर्ष के बाद से प्रारम्भ होकर मृत्यु तक की अवधि सम्मिलित होती है। इस अवस्था में व्यक्ति अपने पहले के समय को याद करता है, कि उसने सभी अवस्थाओं की जिम्मेदारी धनात्मक रूप से पूर्ण की है या नहीं। अगर परिणाम धनात्मक होता है, तो संपूर्णता का भाव विकसित होता है और अगर परिणाम ऋणात्मक होता है, तो नैराश्य का भाव होता है।
तो दोस्तो यह एरिक्सन का “मनोसामाजिक विकास का सिद्धांत -ericcson ka manosamajik vikas ka siddhant” था जो आपको पसंद आया होगा।